- पिंडर घाटी में नदी, नालों में आवागमन को सुगम बनाने के लिए लकड़ी के अस्थाई पुलों के निर्माण में जुट स्थानीय ग्रामीण
थराली से हरेंद्र बिष्ट।
मानसून के विदाई के दिनों में नदी, नालों में पानी कम होने के बाद एक बार फिर लोग अपने तमाम गिले-शिकवे दूर रखकर नदी, नालों में आवागमन को सुगम बनाने के लिए लकड़ी के अस्थाई पुलों के निर्माण में जुट गए हैं। इस काम में प्रत्येक परिवार की सहभागिता होना एक सामाजिक परंपरा रही है।
वर्षा का मौसम अब समाप्ति की ओर है और अब पैदल रास्तों की दूरी घटाने के लिए इन दिनों थराली विकास खंड के अंतर्गत सोल क्षेत्र के प्राणमती नदी पर ढ़ाडरबगड़ में ग्रामीणों ने फिर अस्थायी रूप से लकड़ी के पुल का निर्माण कर लिया है। गौरतलब है कि 2013 में आपदा की भेंट चढ़ चुके सोल क्षेत्र के प्राणमती नदी पर ढ़ाडरबगड़ में निर्मित झूला पुल का निर्माण कार्य आज भी शुरू नहीं हो पाया है। जिसके कारण रणकोट, गुमड़, घुंघटी आदि गांवों के ग्रामीणों को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।
पैदल चलने के लिए पिछले करीब सात सालों से प्रतिवर्ष ग्रामीण इस स्थान पर अस्थाई लकड़ी का पुल बनाकर आवागमन सुलभ बनाने में जुटे हैं। सोल की आवाज संगठन के अध्यक्ष डीएस नेगी का कहना है कि इस बहे पुल के स्थान पर नये पुल के निर्माण के लिए क्षेत्रीय जनता विधायक से लेकर मुख्यमंत्री तक कई बार गुहार लगा चुके हैं। किंतु आश्वासन के अलावा धरातल पर काम नही हो पाया है। जिससे क्षेत्रीय जनता में निराश व्याप्त है, लेकिन वह हर वर्ष नदी के पार आने जाने के लिये लकड़ी का पुल बनाते आ रहे हैं।

दरअसल पहाड़ी क्षेत्रों में स्वतंत्रता से पहले एवं उसके बाद अपनी सरकारें भी इस राज्य के उन दूरस्थ ग्रामीण अंचलों में उस तरह से विकास नहीं कर पाई हैं, जिस तरह की अपेक्षाएं की जा रही थीं। आज भी उत्तराखंड के दर्जनों गांवों के ग्रामीणों को नदी, नालों पर आवागमन के लिए अपनी सामाजिक एकता पर ही केंद्रित होना पड़ रहा है। आज भी दर्जनों ऐसे गांव हैं जिनके वासियों को नदी, नालों से होकर मीलों पैदल चलकर मुख्य मोटर सड़कों, बाजारों, कस्बों में आना जाना पड़ता हैं। बरसात में तो मजबूरीवश ही इन ग्रामीणों को लंबे रास्ते तय करने ही होते हैं। किंतु शेष 6 माह को वे अपनी सामाजिक एकता के बलबूते काफी नजदीक कर लेते हैं।
बरसात समाप्त होते ही नदी, नालों के दूसरे छोरों पर बसे ग्रामीण श्रमदान के जरिए गर्मीयों एवं बरसात में सुगम आवागमन के लिए बाधक बनने वाले नदी, नालों में लकड़ी के लंबे एवं मोटे लट्ठो को डालकर सुगम आवागमन की अस्थाई व्यवस्था कर लेते हैं। जिसे आमतौर पर लकड़ी का पुल, भुत, सांगियों आदि-आदि नामों से जाना जाता हैं। किंतु अगले बरस इन नदी, नालों में पानी बढ़ने के साथ ही अधिकांश अस्थायी लकड़ी के पुल इनमें समा जाते हैं। जिन भी गांवों में ऐसी स्थितियां आज भी कायम है, उनमें सबसे बड़ी बात रहती हैं कि नदी, नालों में अस्थाई पुलों के निर्माण के दौरान प्रत्येक गांव के परिवारों की किसी ना किसी रूप में सहभागिता रहती हैं।
एक तरह से ये ही अस्थाई पुल श्रमदान की भावना को आज भी जिंदा रखे हुए हैं। कई गांवों जो पहले तक पुल-पुलियों के कारण सड़कों, बाजारों, कस्बों के करीब थे, किंतु 2013 की आपदा में पूरे पहाड़ी क्षेत्र के नदियों एवं नालों में निर्मित पुल एवं पुलिया नदियों की भेंट चढ़ गए थे। उनका आज तक भी पुनर्निर्माण नहीं हो पाया है। जिससे ग्रामीणों को भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा हैं।
Hindi News India