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पूर्व डीजीपी बोले- खाकी, खादी और अपराधी के गठजोड़ का सुबूत है कानपुर एनकाउंटर

सभी पूर्व महानिदेशकों ने एक सुर में कहा

  • जिसका तीस साल पुराना आपराधिक इतिहास रहा हो, उसका नाम टॉप टेन की सूची में थाने स्तर पर ही न हो, यह हैरत की बात  
  • कानपुर की घटना से लगता है कि पुलिस और अपराधी के बीच में जरूर कोई ‘संधि’ थी, वह ‘संधि’ टूटी तो  दबिश देने पहुंच गई पुलिस
  • इस मामले में पुलिस की चूक ही चूक, वह हत्याएं कर रहा था, जमीनें और ठेके हथिया रहा था, उस पर 71 केस दर्ज, फिर भी खुला घूम रहा था

लखनऊ। ‘कानपुर की घटना खाकी, खादी और अपराधी के गठजोड़ का सुबूत है। पूरा थाना विकास दुबे के इशारों पर चलता था। आपराधिक इतिहास की लंबी फेहरिस्त होने के बाद भी नेताओं के दबाव में कानपुर नगर के चौबेपुर थाने की पुलिस उसके आगे नतमस्तक रहती थी।’ यह कहना है यूपी के कई पूर्व पुलिस महानिदेशकों का। उन्होंने कहा, यही वजह थी विकास का नाम न तो टॉप टेन अपराधियों की सूची में थाने स्तर पर था और न ही जिला, रेंज, जोन या मुख्यालय स्तर पर। इस घटना में चूक कहां-कहां हुई, क्या होना चाहिए था जो नहीं हुआ? एसओपी के पालन में क्या-क्या कमियां रहीं? इस संबंध में पूर्व के पुलिस महानिदेशकों के मत एक जैसे हैं।  

वर्ष 1990 के दशक में धाकड़ डीजीपी के रूप में पहचान रखने वाले प्रकाश सिंह कहते हैं कि इस घटना में कदम-कदम पर पुलिस चूक करती रही। जिसका नतीजा आठ पुलिस कर्मियों की शहादत के रूप में सामने आया। विकास दुबे एक दिन पहले पुलिस कर्मियों का धमकी दे चुका था। उसका पूर्व का इतिहास भी मंत्री को थाने के अंदर हत्या कर देने का था। इसके बावजूद लापरवाही बरती गई। दबिश देने पूरी तैयारी के साथ नहीं गए। ऐसा लगता है पुलिस की ओर से असलहे का इस्तेमाल ही नहीं किया गया?
उन्होंने कहा कि पुलिस में भर्ती होते समय दिए गए प्रशिक्षण को पूरी तरह से नजरअंदाज किया गया। बुनियादी बातों का भी ख्याल नहीं रखा गया। विकास  को खबर थी कि उसके यहां तीन थानों की फोर्स आ रही है, लेकिन पुलिस को खबर नहीं थी कि उसके छापेमारी की खबर विकास को हो चुकी है।
पूर्व डीजीपी जावीद अहमद का कहना है कि पुलिस के अपराधियों के साथ रिश्तों पर चोट जरूरी है। पुलिस और अपराधी के साथ जब नेता भी इसमें शामिल हो जाते हैं तो यह गठजोड़ और खतरनाक हो जाता है। तीनों एक दूसरे को सपोर्ट करते हैं और एक दूसरे को आगे बढ़ाते हैं। हैरत की बात है जिसका तीस साल पुराना आपराधिक इतिहास रहा हो, उसका नाम टॉप टेन की सूची में थाने स्तर पर ही न हो?
उन्होंने कहा कि कानपुर की घटना से लगता है कि पुलिस और अपराधी के बीच में जरूर कोई ‘संधि’ थी। वह ‘संधि’ टूटी तो पुलिस दबिश देने पहुंच गई और अपराधी ने सूचना मिलने के बाद भी फरार होने के बजाय पुलिस पर आक्रमण कर दिया। 

पूर्व डीजीपी एके जैन का कहना है कि इस मामले में शुरू से अंत तक पुलिस की चूक ही चूक है। इतने बड़े अपराधी को कानपुर पुलिस नजरअंदाज करती रही। पुलिस ने कुख्यात को खुला छोड़ रखा था। वह हत्याएं कर रहा था। जमीनें और ठेके हथिया रहा था। उस पर गंभीर धाराओं के 71 केस दर्ज थे। इसके बाद भी जिला तो दूर थाना के टॉप टेन में भी उसका नाम नहीं था। एक अपराधी को इतना क्यों बढ़ने दिया। मैंने बतौर सीओए एएसपीए एसपी या एसएसपी जहां भी चार्ज लिया, पहली ही रात बदमाशों, सटोरियों और लुटेरों के घर खुद दबिश देने जाता था। 

पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह कहते हैं कि कानपुर की घटना खाकी, खादी ओर अपराधी के गठजोड़ का सबसे बड़ा सुबूत है। सिस्टम ने अपराधी का पूरा साथ दिया। विकास दुबे का गैंगेस्टर में चालान हुआ तो कुछ नहीं हुआ और रासुका में हुआ तो कुछ नहीं हुआ। उसने अपनी फाइलें दबवा दीं। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि 25 हजार वोट इसकी जेब में थे। जब थाने के अंदर मंत्री की हत्या के मामले में विकास बरी हुआ तो उस समय क्यों नहीं सोचा गया कि ऐसा कैसे हुआ?
उन्होंने बताया कि दबिश कहां देनी है, इसकी सूचना अपनी फोर्स को भी पहले से नहीं दी जाती बल्कि उन्हें भ्रमित किया जाता है। जैसे जाना पूरब है तो बताना पश्चिम होता है। तीन लेयर में फोर्स लगाई जाती है। इसमें बाहरी क्षेत्र, अंदरूनी क्षेत्र और छतों पर कब्जा। बाहरी क्षेत्र में पुलिस लगाई जाती है ताकि कोई गांव से बाहर न जा सके और कोई अंदर न आ सके, लेकिन इस मामले में ऐसा कुछ नहीं दिखा और आठ पुलिस कर्मी शहीद हो गये।

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