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…तो भारी विस्फोट और ऋषिगंगा में मलबा डंप करती रहीं कंपनियां, सोता रहा सरकारी अमला और परिणाम… चमोली जल प्रलय!

जोशीमठ। बीते सात फरवरी को चमोली की ऋषिगंगा में अचानक बाई बाढ़ और फिर उससे मची तबाही के वास्तविक कारणों को जानने के लिए सरकारी अमले सहित कई एजेंसियां लगी हुई हैं। वैज्ञानिक शोध भी हो रहे हैं, लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि पर्यावरण नियमों को ताक पर रखकर कंपनियां यहां काम करती रही हैं। कंपनियां यहां भारी विस्फोट करतीं थीं और परियोजना निर्माण का मलबा भी ऋषिगंगा में ही डंप किया जाता था। उनकी देखरेख के लिये भारी भरकम सरकारी अमला कानों में रूई डालकर सोता रहा। जिसकी तंद्रा चमोली जल प्रलय के बाद टूटी या नहीं, इसका पता तो कुछ दिन बाद ही चल पाएगा। इस कारण भी आपदा का रूप भयावह रहा। यह कहना है पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों का।सरकारी आंकड़ों के अनुसार ऋषिगंगा की आपदा में 204 लोग लापता हुए, जिसमें अभी तक 58 शव बरामद हो चुके हैं। वहीं अन्य को तलाशने का काम भी जारी है। स्थानीय लोगों का कहना है कि यदि पर्यावरण के नियमों का कड़ाई से पालन किया गया होता तो शायद यह आपदा नहीं आती। स्थानीय लोग कहते हैं कि ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट और तपोवन जल विद्युत परियोजना का निर्माणदायी कंपनियों ने हर स्तर पर मानकों का उल्लंघन किया। कंपनियां क्षेत्र में लगातार भारी विस्फोट करती थीं। परियोजना निर्माण में निकलने वाले मलबे को नदी में डंप किया गया, लेकिन उनकी निगरानी के लिये तैनात सरकारी ‘दामाद’ इन कंपनियों के गेस्ट हाउसों में ऐश फरमाते रहे। ग्रामीण कई बार इसके विरोध में आवाज उठा चुके हैं, लेकिन उनकी आवाज को दबा दिया गया। आज नतीजा सभी के सामने हैं।
आपदा में मलबे के ढेर में दफन ऋषि गंगा पावर प्रोजेक्ट का कुछ पता ही नहीं चल रहा था। अब यहां पर लोगों की तलाश में मलबा हटाने का काम चल रहा है, जिसके चलते धीरे-धीरे परियोजना के अवशेष नजर आ रहे हैं। इस अवैज्ञानिक तरीके से पहाड़ियों को काटने से संतुलन गड़बड़ा रहा है। इससे गंभीर भूस्खलन और भारी बाढ़ आ रही है। यह मानना है भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग के सेवानिवृत्त अपर महानिदेशक त्रिभुवन सिंह पांगती का। उन्होंने प्राकृतिक आपदाओं पर गहरी चिंता जताई और एक उच्च समिति बनाने की मांग उठाई जो प्रदेश में सुनियोजित विकास का वास्तविक आकलन कर सके।
ऋषिगंगा में बाढ़ के कारण तबाह हुई बिजली परियोजना की शुरुआत में दो वर्षों तक काम कर चुके पूर्व अपर निदेशक त्रिभुवन का कहना है कि विकास के लिए हिमालय की संवेदनशीलता को नजरअंदाज करना घातक होगा। बिजली परियोजनाओं का निर्माण कर रही निजी कंपनियों को पहाड़ी इलाके के भूभाग की स्थिति से संबंधित जानकारी नहीं है। सभी परियोजनाएं उत्तराखंड में पूरी तरह से विफल हो रही हैं। इसकी गंभीरता को देखते हुए किसी सरकारी विभाग या हिमालयन क्षेत्रों में कार्य करने की विशेषज्ञता प्राप्त अन्य तकनीकी एजेंसियों से भूगर्भीय जोखिम, ग्लेशियोलॉजिकल और भूभाग का विस्तृत अध्ययन कराना जरूरी है।
उन्होंने कहा कि हिमालयी क्षेत्रों के सभी बुनियादी ढांचे और संचार परियोजनाओं के लिए सभी तकनीकी समीक्षा और सलाह प्रदान के लिए प्रख्यात विशेषज्ञों की एक उच्च स्तरीय समिति स्थापित करने की जरूरत है, जो हिमालयी क्षेत्रों की सभी परियोजनाओं के सुनियोजित विकास का वास्तविक आकलन कर सके।
अब वाडिया इंस्टीट्यूट समेत कई संस्थानों के वैज्ञानिकों की संयुक्त टीमें मंथन करेंगी। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने देश के तमाम संस्थानों के वैज्ञानिकों के साथ बैठक कर आपदा से जुड़े तमाम पहलुओं पर विस्तृत चर्चा की। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) ने वैज्ञानिकों की दो संयुक्त टीमें गठित की हैं। ये टीमें 60 दिनों में रिपोर्ट सौंपेंगी। अब देखना यह है कि इस रिपोर्ट की सिफारिशों को कितनी शिद्दत से अमल में लाया जाएगा।

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