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‘भारत-चीन कोयले पर अपना रुख़ स्पष्ट करें’

इन दोनों देशों ने COP26 में कोयले के इस्तेमाल पर फे़ज़ आउट (चरणबद्ध तरीके़ से ख़त्म) को फ़ेज़ डाउन (चरणबद्ध तरीक़े से कम) में बदलने की वकालत की थी.

आलोक शर्मा का यह बयान ग्लासगो की इस बैठक में इसे स्वीकार लिए जाने के बाद आया है.

हालांकि कि आलोक शर्मा ने कहा कि यहां तापमान को 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक बढ़ने पर ऐतिहासिक सहमति बनी.

“नाकामी नहीं, उपलब्धि”

ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिहाज़ से सबसे ख़राब जीवाश्म ईंधन कोयले को धीरे धीरे कम करने की योजना पर सहमति बनाने वाला यह अब तक का पहला जलवायु समझौता है.

यह सम्मेलन जो पहले शुक्रवार को ख़त्म होने वाला था, शनिवार को देर से एक डील पर सहमति बनने के साथ ख़त्म हुआ.

बातचीत के मसौदे में कोयले के इस्तेमाल को ‘चरणबद्ध तरीके से ख़त्म’ करने की प्रतिबद्धता को शामिल किया गया था लेकिन भारत के विरोध जताने के बाद इसे हटा दिया गया.

आलोक शर्मा ने कहा कि ग्लासगो में हुआ जलवायु समझौता एक बहुत कमज़ोर जीत है. साथ ही उन्होंने चीन और भारत से उन देशों को अपने रुख़ को लेकर सफ़ाई देने को आग्रह किया जो ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों लेकर बेहद संवेदनशील हैं.

उन्होंने बीबीसी वन के एंड्रयू मार शो में कहा, “मैं सभी देशों से और अधिक प्रयास करने का आग्रह करता हूं. लेकिन जैसा कि मैंने कहा, जो बीते कल हुआ, चीन और भारत को दुनिया के उन देशों को स्पष्टीकरण देना चाहिए जो जलवायु परिवर्तन की सबसे अधिक मार झेल रहे हैं.”

आलोक शर्मा इस सम्मेलन की समाप्ति के अवसर पर पहले तो भारत और चीन के रुख़ पर बोले फिर कहा हमने जो कल किया उसे मैं नाकामी नहीं कहूंगा, यह एक ऐतिहासिक उपलब्धि है.

चीने के संवाददाता स्टीफन मैकडॉनेल का विश्लेषण

इस मुद्दे पर चीन का भारत के साथ हाथ मिलाना उन लोगों के लिए बड़ा झटका है जो इस सम्मेलन से महत्वकांक्षी परिणाम चाहते थे.

हालांकि, शायद वो इस सम्मेलन के अंतिम समझौते से पूरी तरह निराशवादी भी नहीं होना चाहिए.

उदाहरण के लिए, चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र शिन्हुआ वायर सर्विस पहले से ही अपनी टिप्पणियों में इस बात को लिखता आया है कि “बिजली के उत्पादन में कोयले का उपयोग सबसे अधिक कार्बन डायऑक्साइड उत्सर्जन का कारण है.”

ऐसा लग सकता है कि ये जो ज़ाहिर है उसे बता रहा है, लेकिन शिन्हुआ की तरफ़ से ऐसे शब्दों का इस्तेमाल सरकार के इस रुख को भी ज़ाहिर करता है कि- कोयला समस्या का सबसे बड़ा कारण है.

चीन को पता है कि कोयले को लेकर परिस्थितियां बहुत मुश्किल होने वाली हैं लेकिन सरकार के लिए जो मायने रखती है वो है इसकी वो गति जिससे इसे ख़त्म किया जाना है.

माना जाता है कि सबसे विकसित देशों ने ख़ुद को समृद्ध करने के दरम्यान पूरी दुनिया को इस समस्या में ढकेला है, तो अब तर्क ये है कि चीन जैसे देशों के लिए चीज़ें आसान हो इसलिए उन्हें और मोहलत चाहिए.

चीनी प्रतिनिधिमंडल ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि विकासशील देशों को स्वच्छ ऊर्जा की ओर बढ़ने की दिशा में विकसित देशों की ओर से वित्त और तकनीकी सहायता देने के वादों पूरा करने में भी कमी आई है.

ग्लासगो में चीनी टीम का नेतृत्व कर रहे मंत्री झाओ यिंगमिन ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि विकसित देश अपने वादों को पूरा करने का और अधिक प्रयास करेंगे और विकासशील देशों को सहयोग करेंगे.

COP26 के मुख्य लक्ष्यों में से साल 2100 तक तापमान में 1.5 डिग्री अधिक वृद्धि नहीं होने देना है जिसके बारे में वैज्ञानिकों का कहना है कि यह जलवायु परिवर्तन के सबसे बुरे प्रभावों को सीमित करेगा.

ग्लासगो में हुए समझौते में शामिल देशों ने 1.5 सेंटीग्रेड के लक्ष्य तक पहुँचने के उद्देश्य से और अधिक कार्बन कटौती का संकल्प लेने के लिए अगले साल एक बार फिर एकजुट होने का वादा किया है. अगर दुनिया भर के देशों की वर्तमान प्रतिज्ञा पूरी हो जाती है तो भी यह ग्लोबल वार्मिंग को केवल 2.4 डिग्री सेंटीग्रेड तक सीमित करेगा.

वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि अगर वैश्वविक तापमान 1.5 डिग्री से अधिक बढ़ता है तो धरती पर इसके गंभीर प्रभाव होंगे, जैसे कि- लाखों कि तादाद में लोगों को अत्यधिक गर्मी का सामना करना पड़ेगा. 19वीं सदी की तुलना में दुनिया वर्तमान में 1.2 डिग्री सेंटीग्रेड अधिक गर्म हो गई है.

ग्लासगो जलवायु समझौते के तहत

2030 तक कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के अपने अत्यधिक महत्वकांक्षी लक्ष्य को पाने के लिए दुनिया भर के देशों को अगले साल के अंत तक जलवायु परिवर्तन को लेकर अपनी कार्य योजनाओं को फिर से लागू करने के लिए कहा गया है.

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से सबसे अधिक पीड़ित देशों को विकसित देशों की तरफ़ से दिए जाने वाले 100 बिलियन डॉलर के वार्षिक लक्ष्य को और बढ़ाने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया गया.

ग्लोबल जलवायु डील में कोयले को पहली बार शामिल किया गया है.

इसके पिछले ड्राफ़्ट में कोयले के इस्तेमाल को चरणबद्ध तरीक़े से ख़त्म करने की ली गई प्रतिज्ञा पर पानी फिर गया, अब इसे चरणबद्ध तरीके से कम करने की प्रतिज्ञा ली गई है.

कुछ आलोचनाओं के बाद इसकी अंतिम डील पर सहमति बनी है.

ब्रिटिश मंत्री एडवर्ड मिलिबैंड ने स्काइ न्यूज़ के एक कार्यक्रम में कहा कि “1.5 डिग्री के लक्ष्य को कायम रखना निश्चित रूप से आईसीयू में होने जैसा है.”

उन्होंने कहा कि 2030 तक उत्सर्जन को आधा करने का लक्ष्य था और ग्लासगो में कुछ प्रगति के बावजूद दुनिया उसके केवल 20 से 25 फ़ीसद के प्राप्ति की ओर बढ़ती दिख रही है.

लेकिन मिलिबैंड ने आलोक शर्मा के प्रयासों की सराहना की.

संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन प्रमुख पैट्रिसिया एस्पिनोसा ने कोयला और जीवाश्म ईंधन पर इस सम्मेलन में बातचीत को आगे की ओर बढ़ाया गया एक बड़ा क़दम बताया है.

उन्होंने कहा कि “हमें दुनिया भर के देशों में, ख़ास कर ग़रीब मुल्कों में, समाजिक परिणामों को संतुलित करने की ज़रूरत है.”

जलवायु परिवर्तन समिति के अध्यक्ष लॉर्ड डेबेन ने बीबीसी रेडियो फ़ोर के द वर्ल्ड दिस वीकेंड से कहा कि ब्रिटेन को भविष्य में जलवायु परिवर्तन से मेल खाती बिजनेस डील पर बातचीत करनी चाहिए, उन्होंने उदाहरण के तौर पर ऑस्ट्रेलिया का नाम लिया.

मुझे उम्मीद है कि मेरी सरकार उस ट्रेड डील पर हस्ताक्षर नहीं करेगी जिसमें ऑस्ट्रेलिया अपने किसानों को जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपायों के लिए कुछ नहीं कर रहा और अपने उत्पादों को ब्रिटेन को निर्यात कर रहा है.

उन्होंने यह भी कहा कि कोयले पर राग़ बदलने के लिए भारत की ओर से ज़ोर दिया जाना पूरी प्रक्रिया का दुरुपयोग था.

क्लाइमेट ऐक्शन ट्रैकर ग्रुप की रिपोर्ट के मुताबिक वर्तमान दर से पूरी दुनिया साल 2100 तक 2.4 डिग्री अधिक गर्म हो जाएगी.

वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर कोई कार्रवाई नहीं की गई तो भविष्य में ग्लोबल वार्मिंग 4 डिग्री सेंटीग्रेड तक हो सकती है.

इससे लू, सूखा, अत्यधिक बारिश और बाढ़ जैसे विनाशकारी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ सकती हैं जिसके फलस्वरूप समुद्र के बढ़ते जल स्तर की वजह से हज़ारों की संख्या में लोगों को अपना घर खोना पड़ सकता है.

साथ ही, जलवायु परिवर्तन हमारी पारिस्थिकी तंत्र को भी अपरिवर्तनीय नुकसान पहुंचा सकता है. इससे बड़े पैमाने पर पशुओं और पौधों की प्रजातियां विलुप्त हो सकती है.

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