- मोदी सरकार के दौरान एनपीए ने अब तक के तोड़े सारे रिकाॅर्ड, इसमें 85 प्रतिशत रकम सरकारी बैंकों की
नई दिल्ली। मोदी सरकार ऐसे कर्जदारों पर पूरी मेहरबान रही है जिनसे बैंक अपना पैसे नहीं वसूल पाये। अब तक 875 हजार करोड़ रुपए का लोन राइट-ऑफ हो चुका है यानि बट्टे खाते में डाले जा चुके हैं। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के एनुअल स्टैटिकल रिपोर्ट के आंकड़े आंखें खोलने वाले हैं। इसमें नॉन-परफॉर्मिंग एसेट (एनपीए) का भी जिक्र है। 2014 से लेकर 2020 यानी मोदी के 6 सालों में एनपीए की कुल रकम 46 लाख करोड़ रही।
दिलचस्प बात यह है कि जो मनमोहन अपने आखिरी के 4 साल में नहीं कर सके, उसे मोदी ने आने के साथ पहले ही साल कर दिया। 2010-11 से लेकर 2013-14 के बीच 4 सालों में, मनमोहन सरकार में 44 हजार 500 करोड़ रुपए का लोन राइट-ऑफ हुआ। लेकिन मोदी के सत्ता में आने के बाद पहले ही साल, यानी अकेले 2014-15 में 60 हजार करोड़ रुपए का लोन राइट-ऑफ हो गया। 2017-18 से तो जैसे मानो मोदी सरकार ने ऐसे कर्जदारों पर मेहरबान होने का बीड़ा ही उठा लिया हो। 2017-18 से लेकर 2019-20 के बीच, सिर्फ तीन सालों में मोदी सरकार में 6 लाख 35 हजार करोड़ से भी ज्यादा का लोन राइट-ऑफ हुआ।
अब अगौरतलब है कि जब बैंकों को लगता है कि उन्होंने लोन बांट तो दिया, लेकिन वसूलना मुश्किल हो रहा है, तब बैंक ये वाला फंडा अपनाता है। गणित ऐसी उलझती है कि बैलेंस शीट ही गड़बड़ होने लगती है। ऐसे में बैंक उस लोन को ‘राइट-ऑफ’ कर देता है, यानी बैंक उस लोन अमाउंट को बैलेंस शीट से ही हटा देता है। यानी गया पैसा बट्टे खाते में। रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि सरकारी बैंकों ने साल 2010 से कुल 6.67 लाख करोड़ रुपए के कर्जों को राइट ऑफ किया है। निजी सेक्टर के बैंकों ने इसी दौरान 1.93 लाख करोड़ रुपए के कर्ज को राइट ऑफ किया है।
बीते दशक में 4 साल मनमोहन तो 6 साल मोदी सरकार रही। मनमोहन सरकार के आखिरी 4 साल (2011-2014) के बीच छच्। की बढ़ने की दर 175ः रही, जबकि मोदी सरकार के शुरुआती 4 साल में इसके बढ़ने की दर 178ः रही। प्रतिशत में ज्यादा फर्क नहीं दिख रहा है, लेकिन इतना जान लीजिए कि मनमोहन ने छच्। को 2 लाख 64 हजार करोड़ पर छोड़ा था और मोदी राज में ये 9 लाख करोड़ तक पहुंच चुका है।
जब कोई व्यक्ति या संस्था किसी बैंक से लोन लेकर उसे वापस नहीं करती, तो उस लोन अकाउंट को क्लोज कर दिया जाता है। इसके बाद उसकी नियमों के तहत रिकवरी की जाती है। ज्यादातर मामलों में यह रिकवरी हो ही नहीं पाती या होती भी है तो न के बराबर। नतीजतन बैंकों का पैसा डूब जाता है और बैंक घाटे में चला जाता है। कई बार बैंक बंद होने की कगार पर पहुंच जाते हैं और ग्राहकों के अपने पैसे फंस जाते हैं। ये पैसे वापस तो मिलते हैं, लेकिन तब नहीं जब ग्राहकों को जरूरत होती है।
पीएमसी के साथ भी यही हुआ था, उसने एक ऐसी रियल स्टेट कंपनी को 4 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का लोन दे दिया था, जो बाद में खुद ही दिवालिया हो गई थी। लोन को देने में भी बैंक ने आरबीआई के नियमों को नजरअंदाज किया था। साल 2020 में बैंकों का जितना पैसा डूबा उसमें 88ः रकम सरकारी बैंकों की थी। कमोबेश पिछले 10 साल से यही ट्रेंड चला आ रहा है। सरकारी बैंक मतलब आपकी बैंक, इन्हें पब्लिक बैंक भी कहा जाता है। जब सरकारी बैंक डूब जाते हैं, तो सरकार या त्ठप् इनके मदद के लिए सामने आते हैं, जिससे सरकारी बैंक ग्राहकों के पैसों को लौटा सकें। मोदी के सत्ता में आने के बाद, साल 2015-16 में एनपीए की रिकवरी 80 हजार 300 करोड़ हुई, जो 2015-16 के एनपीए का एक चैथाई भी नहीं था। हालांकि अगले साल से वसूली थोड़ी बढ़ा दी गई, लेकिन 2019-20 में ये फिर घट गई। कुल मिलाकर एनपीए रिकवरी की रकम कुल एनपीए की तुलना में न के बराबर है।