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नंदा देवी में खोये न्यूक्लियर डिवाइस से फटा ग्लेशियर!

भारत-अमेरिका का वह खुफिया मिशन….

  • वर्ष 1965 में अमेरिका खुफिया एजेंसी सीआईए ने भारत से मांगी थी मदद
  • नंदा देवी पर्वत पर न्यूक्लियर डिवाइस लगाने का बनाया गया प्लान
  • चीन की परमाणु गतिविधियों पर नजर रखने के लिए मिशन की तैयारी
  • अभी तक लापता है 1965 में टीम को नंदा देवी से पहले छोड़ी गई डिवाइस

देहरादून। चमोली के तपोवन इलाके में ग्लेशियर फटने के बाद रविवार को आई जलप्रलय की वजह को लेकर कई तरह की बातें सामने आ रही हैं। जहां पर्यावरणविद ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट और विकास की दौड़ में बन रहे डैम पर उंगली उठा रहे हैं। वहीं ये भी दलील दी जा रही है कि ये कुदरत का कहर है और इंसानी गतिविधियां जिम्मेदार नहीं हैं। इसी बीच कुछ लोगों का कहना है कि 1965 में एक सीक्रेट मिशन के दौरान नंदा देवी में रेडियोऐक्टिव डिवाइस खो गई थी और इससे पैदा हुई गर्मी की वजह से ग्लेशियर फट गया। आइए जानते हैं उस सीक्रेट मिशन के बारे में…
शीतयुद्ध के दौर में हुआ मिशन नंदा देवी : समुद्र तल से 7800 मीटर से ज्यादा ऊंचाई पर नंदा देवी पर्वत स्थित है। यह भारत की दूसरी सबसे ऊंची चोटी है। 1965 से इन चोटियों में एक राज दफन है, जो इंसान के लिए विनाशकारी आशंका को बार-बार बल देता है। शीतयुद्ध का दौर था और उस वक्त दुनिया दो ध्रुवों में बंटी हुई थी। भारत और अमेरिका ने 1965 में मिशन नंदा देवी के रूप में एक खुफिया अभियान चलाया था। चीन की परमाणु गतिविधियों पर नकेल कसने के लिए ये सीक्रेट मिशन शुरू हुआ था। चीन पर निगरानी के लिए अमेरिका ने भारत से मदद मांगी। कंचनजंगा पर खुफिया डिवाइस लगाने का प्लान बनाया गया। भारतीय सेना ने जब इसको टेढ़ी खीर बताया तो 25 हजार फीट से ज्यादा ऊंचाई पर स्थित नंदा देवी पर रेडियोऐक्टिव डिवाइस लगाने का फैसला हुआ।

सीक्रेट मिशन में शामिल थी 200 लोगों की टीम : वर्ष 1964 में चीन ने शिनजियान प्रांत में न्यूक्लियर टेस्ट किया। इसके बाद 1965 में अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने हिमालय की चोटियों से चीन की परमाणु गतिविधियों पर निगहबानी का प्लान बनाया। इसके लिए भारतीय खुफिया विभाग (आईबी) से मदद लेकर नंदा देवी पर्वत पर खुफिया यंत्र लगाने की कोशिश की गई। पहाड़ पर 56 किलोग्राम के यंत्र स्थापित किए जाने थे। इन डिवाइस में 8 से 10 फीट ऊंचा एंटीना, दो ट्रांस रिसीवर सेट और परमाणु सहायक शक्ति जनरेटर शामिल थे। जनरेटर के न्यूक्लियर फ्यूल में प्लूटोनियम के साथ कैप्सूल भी थे, जिनको एक स्पेशल कंटेनर में रखा गया था। न्यूक्लियर फ्यूल जनरेटर हिरोशिमा पर गिराए गए बम के आधे वजन का था। टीम के शेरपाओं ने इसे गुरुरिंगपोचे नाम दिया था। 200 लोगों की टीम इस सीक्रेट मिशन से जुड़ी हुई थी।

अक्टूबर 1965 में कैंप-4 पर अधूरा छोड़ना पड़ा मिशन : अक्टूबर 1965 में टीम नंदा देवी पर्वत के करीब 24 हजार फीट ऊंचाई पर स्थित कैंप-4 पहुंच गई। इसी दौरान अचानक मौसम काफी खराब हो गया। टीम लीडर मनमोहन सिंह कोहली के लिए यह करो या मरो का सवाल था। उन्हें अपनी टीम या खुफिया डिवाइस में से किसी एक को चुनना था। ऐसे में उन्होंने अपनी टीम के मेंबर्स को तवज्जो दी। आखिरकार टीम को मिशन अधूरा छोड़कर वापस लौटना पड़ा। परमाणु सहायक शक्ति जनरेटर मशीन और प्लूटोनियम कैप्सूल को कैंप-4 पर ही छोड़ना पड़ा।

वर्ष 1966 में फिर हुई तलाश, लेकिन मिली नाकामी : इसके एक साल बाद 1966 में एक बार फिर मिशन को पूरा करने का प्रयास हुआ। मई 1966 में पुरानी टीम के कुछ सदस्य और एक अमेरिकी न्यूक्लियर एक्सपर्ट फिर नंदा देवी पर्वत पर डिवाइस की खोज के लिए निकले। यह तय किया गया कि खुफिया डिवाइस को कम ऊंचाई पर भी स्थापित किया जा सकता है। 6861 मीटर की ऊंचाई पर स्थित माउंट नंदा कोट वहां खुफिया यंत्र को स्थापित करने का फैसला लिया गया। डिवाइस की तलाश में टीम नंदा देवी पर्वत के कैंप-4 पहुंची। लेकिन जब वहां तलाश शुरू हुई तो न तो डिवाइस मिला और न ही प्लूटोनियम की छड़ों का कुछ अता-पता चला। आज तक इस खुफिया रेडियोऐक्टिव डिवाइस का कुछ भी पता नहीं चल पाया है। विशेषज्ञों का मानना है कि प्लूटोनियम के ये कैप्सूल 100 साल तक ऐक्टिव रह सकते हैं। ये रेडियोऐक्टिव डिवाइस अब भी उसी इलाके में कहीं दबी हुई है।

इस मिशन के खिलाफ थे टीम लीडर कैप्टन कोहली : 1965 में मिशन नंदा देवी के टीम लीडर कैप्टन मनमोहन सिंह कोहली इस अभियान के खिलाफ थे। उन्होंने कहा था कि नंदा देवी चोटी 25 हजार फीट से ज्यादा ऊंची है। इतनी ऊंचाई पर खतरनाक रेडियोऐक्टिव सामान ले जाने के खतरे के बारे में उन्होंने आगाह किया था। लेकिन अमेरिकी खुफिया एजेंसी की टीम हर हाल में मिशन को अंजाम देना चाहती थी। ऐसे में उनकी सलाह को दरकिनार कर दिया गया। इसके बाद भारत-अमेरिका की टीम को वहां जाना पड़ा। 14 अक्टूबर 1965 को टीम का बर्फीले तूफान से सामना हुआ। ऐसे में टीम के सदस्यों की जान खतरे में थी। टीम लीडर कोहली ने फिर सभी को वापस बेस कैंप लौटने के निर्देश दिए। इसके बाद 1 जून 1966 को टीम फिर कैंप-4 पहुंची लेकिन काफी जद्दोजहद के बाद वहां कुछ भी नहीं मिला।
खो चुकी डिवाइस जलप्रलय की जिम्मेदार ? वर्ष 1977 में सीआईए और आईबी के इस सीक्रेट मिशन का खुलासा पहली बार हुआ था। अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी इस पर चर्चा छिड़ी। इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरार जी देसाई को संसद में मिशन के बारे में पुष्टि करनी पड़ी थी। इसके बाद से लगातार बहस चल रही है कि हिमालय में किसी तरह के रेडियो ऐक्टिव डिवाइस का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए, क्योंकि यह कभी भी किसी विनाशकारी आपदा को जन्म दे सकता है। अब रैणी गांव के लोगों ने आशंका जाहिर की है कि 1965 में नंदा देवी में खो चुकी रेडियोऐक्टिव डिवाइस से उत्पन्न हुई गर्मी से ग्लेशियर फटा। ऐसे में इस बात को बल मिल रहा है कि कहीं 1965 की वह खो चुकी डिवाइस इस जलप्रलय के लिए जिम्मेदार तो नहीं है?

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