- महावीरचक्र विजेता जसवंत को आज भी सीमा पर दी जाती है तैनाती
- बकायदा प्रमोशन और छुट्टियां मिलती हैं
- 1962 के युद्ध में अकेले चीनी सेना के 300 सैनिकों को किया था ढेर
- 72 घंटे तक युद्ध के मैदान में अकेले जुझते रहे
- उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल बंड्यू में हुआ था जन्म
देहरादून। देवभूमि के ऐसे जाबांज सपूत की शौर्य गाथा को सुनकर हर किसी के रौंगटे खड़े हो जाते हैं। उनकी बहादुरी को देखकर दुश्मन सेना ने भी उनको सलाम किया। चीनी सेना आज भी उन्हें सलाम करती है। जी हां यहां बात हो रही है। महावीरचक्र विजेता राइफलमैन जसवंत सिंह की। आज उनकी 80 जयंती है। इ-न्यूज की ओर से उनकी जयंती पर श्रद्धांजलि और लाखों सलाम। 1962 के युद्ध में जसवंत ने चीन के छक्के छुड़ाने दिए थे। 72 घंटे तक जसवंत सिंह अकेले चीनी सेना से लड़ते रहे। इस जंग में चीनी सेना अरुणाचल के सेला टॉप के रास्ते हिंदुस्तानी सरहद पर सुरंग बनाने की कोशिश कर रही थी। तभी सामने के पांच बंकरों से आग और बारूद के ऐसे शोले निकले और चीनी सेना के 300 सैनिक ढेर हो गए। चीन के सैनिकों ने देखा भारत की आखिर यहां कितनी बड़ी बटालियन तैनात है। जब चीनी सैनिक आगे आए तो उनके होस फांकता हो गए। एक अकेले सैनिक ने हमारे इतने सैकिकों को मार गिरा दिया है। हाथ-पैर कांपने लगे।
दरअसल बीच लड़ाई में ही संसाधन और जवानों की कमी का हवाला देते हुए बटालियन को वापस बुला लिया गया। लेकिन जसवंत सिंह ने वहीं रहने और चीनी सैनिकों का मुकाबला करने का फैसला किया। उन्होंने 14,000 फीट की ऊंचाई पर करीब 1000 किलोमीटर क्षेत्र में फैली अरुणाचल प्रदेश स्थित भारत-चीन सीमा युद्ध का मैदान बनाया। अरुणाचल प्रदेश की मोनपा जनजाति की दो लड़कियों नूरा और सेला की मदद से फायरिंग ग्राउंड बनाया और तीन स्थानों पर मशीनगन और टैंक रखे। उन्होंने ऐसा चीनी सैनिकों को भ्रम में रखने के लिए किया, ताकि चीनी सैनिक यह समझते रहे कि भारतीय सेना बड़ी संख्या में है और तीनों स्थान से हमला कर रही है। 17 नवंबर, 1962 को चारों तरफ से चीनी सेना ने जसवंत सिंह को घेर लिया था। हमले में सेला मारी गई और नूरा को चीनी सैनिकों ने जिंदा पकड़ लिया। जब जसवंत सिंह को अहसास हो गया कि उनको पकड़ लिया जाएगा तो उन्होंने युद्धबंदी बनने से बचने के लिए एक गोली खुद को मार ली। चीनी सेना के कमांडर जसवंत सिंह का सिर काटकर ले गए। चीनी सेना जसवंत सिंह के पराक्रम को देखकर इतनी प्रभावित कि चीनी सेना ने उनके सिर को लौटा दिया। चीनी सेना ने उनकी पीतल की बनी प्रतिमा भी भेंट की।
राइफलमैन जसवंत सिंह रावत का जन्म उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले के बाॅड्सू गांव में 19 अगस्त, 1941 को हुआ था। उनके पिता का नाम गुमन सिंह रावत था। 17 साल की उम्र में पहले प्रयास में वह भर्ती नहीं हो पाए। इसी साल वह दूसरे प्रसास में सेना में भर्ती हो गए। गढ़वाल राइफल्स की चैथी बटालियन के डेल्टा कंपनी में सेवारत थे। भारतीय फौज का यह राइफल मैन आज भी सरहद पर तैनात है। उनके नाम के आगे कभी स्वर्गीय नहीं लिखा जाता है। उन्हें आज भी पोस्ट और प्रमोशन दिया जाता है। उन्हें छुट्टियां भी दी जाती हैं। जिस पोस्ट पर उन्होंने आखिरी लड़ाई लड़ी वहां का नाम जसवंतगढ़ रखा गया है। उनके नाम का मंदिर बनाया गया है। उनकी सेवा में भारतीय सेना के पांच जवान दिन-रात लगे रहते हैं। उनकी वर्दी को प्रेस करते हैं। जूते पॉलिस करते हैं और सुबह शाम नाश्ता और खाना देने के साथ रात को सोने के लिए विस्तर लगाते हैं। सेना के जवानों का मानना है कि अब भी जसवंत सिंह की आत्मा चैकी की रक्षा करते हंै। वह भारतीय सैनिकों का भी मार्गदर्शन करते हैं। अगर कोई सैनिक ड्यूटी के दौरान सो जाता है तो वह उनको जगा देते हैं।
जाबांज सैनिक जसवंत सिंह रावत के जीवन पर अविनाश ध्यानी ने एक फिल्म भी बनाई है जिसका नाम 72 आर्स मार्टियार हू नेवर डाइड है।