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आंखें नम कर देगा भारतीय महिला हॉकी टीम की इन बेटियों का संघर्ष!

जीवटता और जज्बे को जय हिंद

  • गरीबी, लड़कियों को चूल्हा संभालने वाली सोच सहित कई मुश्किलों को दी मात
  • महिला हॉकी टीम की कप्तान रानी रामपाल तांगा चलाने वाले की बेटी
  • गुरजीत के पिता ने मोटरसाइकिल बेचकर बेटी को दिलाई थी हॉकी किट

टोक्यो। ओलंपिक में भारतीय महिला हॉकी टीम ने इतिहास रचते हुए सेमीफाइनल में जगह बना ली है। 41 साल में टीम ने पहली बार यह कारनामा किया है। इस असंभव सी लगती सफलता को मुमकिन बनाया है भारत की इन 16 बेटियों ने। इन्होंने ऑस्ट्रेलिया, साउथ अफ्रीका, आयरलैंड जैसी धुरंधर टीमों को हराने से पहले अपने जीवन में गरीबी, लड़कियों को कमतर आंकने वाली सोच सहित कई मुश्किलों को मात दी है। आइए जानते हैं रियल लाइफ की इन चक दे गर्ल्स की कहानी…

कप्तान रानी रामपाल ने गरीबी को मात देकर हॉकी में बनाया मुकाम : भारतीय महिला हॉकी टीम की कप्तान रानी रामपाल हरियाणा के कुरुक्षेत्र के शाहाबाद कस्बे की रहने वाली हैं। उनके रामपाल पिता तांगा चलाया करते थे। मां लोगों के घरों में काम करती थी। पिता की कमाई करीब 80 रुपए रोज की थी। रानी से बड़े दो भाई हैं। एक भाई किराना के दुकान में काम करता है। वहीं, दूसरा भाई बढ़ई का काम करता है। रानी के घर के सामने ही लड़कियों की हॉकी की एकेडमी थी।
रानी जब एकेडमी में दाखिले के लिए गईं तो कोच बलदेव सिंह ने साफ मना कर दिया, क्योंकि रानी काफी दुबली पतली थीं। उन्हें लगता था कि रानी की आर्थिक स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं है, ऐसे में उनके लिए डाइट का इंतजाम करना मुश्किल होगा। लेकिन, रानी की बार-बार जिद की वजह से उन्हें ट्रेनिंग पर आने के लिए कहा। साथ ही उन्होंने कहा कि एकेडमी में पीने के लिए आधा लीटर दूध लाने के लिए कहा। उनका परिवार 200 मिली दूध का ही इंतजाम कर पाता था। रानी उसमें पानी मिलाकर ले जाती थीं ताकि ट्रेनिंग छूट न जाए। शुरुआत में वे सलवार में ही ट्रेनिंग करती थीं। बाद में उनकी प्रतिभा को देखते हुए कोच बलदेव सिंह ने उन्हें किट दिलवाई।

गुरजीत के पिता ने बाइक बेचकर बेटी को दिलाई थी हॉकी किट : भारत ने ऑस्ट्रेलिया को क्वार्टर फाइनल में 1-0 से हराया। भारत के लिए इकलौता गोल गुरजीत कौर ने किया था। गुरजीत टीम में डिफेंडर और ड्रैग फ्लिक स्पेशलिस्ट की भूमिका निभाती हैं। ड्रैग फ्लिक स्पेशलिस्ट यानी पेनल्टी कॉर्नर लेने वाली खिलाड़ी है। अमृतसर की मियादी कला गांव की रहने वाली 25 साल की गुरजीत किसान परिवार से हैं। जिनका हॉकी से कोई संबंध नहीं था।
उनके पिता सतनाम सिंह बेटी की पढ़ाई को लेकर काफी गंभीर थे। गुरजीत और उनकी बहन प्रदीप ने शुरुआती शिक्षा गांव के निजी स्कूल से ली और फिर बाद में उनका दाखिला तरनतारन के कैरों गांव में स्थित बोर्डिंग स्कूल में करा दिया गया। गुरजीत का हॉकी का सपना वहीं से शुरू हुआ। हालांकि, गुरजीत को हॉकी खिलाड़ी बनाना उनके परिवार के लिए आसान नहीं था। उनके लिए हॉकी किट खरीदने के लिए उनके पिता ने मोटरसाइकिल तक बेच दी थी।

सलीमा टेटे के डिफेंस को भेदने में नाकाम रही ऑस्ट्रेलिया जैसी मजबूत टीम : भारतीय टीम की युवा डिफेंडर सलीमा टेटे झारखंड में हॉकी का गढ़ माने जाने वाले सिमडेगा जिले से हैं। सलीमा का परिवार आज भी कच्चे घर में रहता है। परिवार में पांच बहनें और एक भाई है। घर की हालत ऐसी नहीं थी कि बेटी को स्पोर्ट्स कॉलेज में भेज सकें। सलीमा के सपने को सच करने के लिए बहन अनीमा ने बेंगलुरु में मेड का काम किया। सलीमा जब हॉकी की वर्ल्ड चैंपियनशिप खेलने गईं तो उनके पास ट्रॉली बैग तक नहीं था। कुछ परिचितों ने किसी से पुराना बैग लेकर दिया। पॉकेट मनी के लिए फेसबुक पर मुहिम चलाई गई। हालांकि अब सलीमा को सरकारी नौकरी मिल चुकी है।

स्टेडियम में जाने से रोक दी गई थी निक्की प्रधान की मां : झारखंड के खूंटी जिले की रहने वाली निक्की प्रधान मिडफील्डर हैं। निक्की के पिता पुलिस में हैं। उनके पास समय की कमी होती है। इसलिए मां ही उन्हें ट्रेनिंग के लिए ले जाती थीं। एक बार निक्की स्टेट लेवल पर रांची के स्टेडियम में मैच खेल रही थीं लेकिन पुलिस वालों ने उनकी मां को अंदर नहीं जाने दिया। उन्होंने बार-बार बताया कि उनकी बेटी मैच खेल रही है लेकिन किसी ने उसकी बात पर यकीन नहीं किया था।

ओलंपिक में हैट्रिक जमाने वाली भारत की पहली महिला खिलाड़ी हैं वंदना : साउथ अफ्रीका के खिलाफ पूल मैच में हैट्रिक जमाने वाली फॉरवर्ड वंदना कटारिया हरिद्वार के रोशनाबाद की रहने वाली हैं। वंदना ने पेड़ की टहनियों से हॉकी खेलना शुरू किया था। वंदना के परिवार में ज्यादातर लोग नहीं चाहते थे कि वह हॉकी खेलें, लेकिन पिता नाहर सिंह चाहते थे कि बेटी आगे खेलों में नाम कमाये। वंदना जब ओलंपिक की ट्रेनिंग के लिए बेंगलुरु में थीं तभी उनके पिता का निधन हो गया। कोरोना के कारण वह उनके अंतिम संस्कार में भी नहीं पहुंच सकीं। अब परिवार का कहना है कि वंदना खेल के मैदान पर पिता की आखिरी ख्वाहिश पूरा करने के लिए खेल रही हैं। पिता की ख्वाहिश थी कि बेटी अपनी हॉकी से पूरी दुनिया में अपना नाम रोशन करे।

मैकेनिक की बेटी हैं नवजोत कौर : नवजोत कौर उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर की रहने वाली हैं। उनके पिता पेशे से मैकेनिक हैं और मां गृहिणी हैं। नवजोत ने कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की और शाहाबाद में बलदेव सिंह की अकादमी में हॉकी के लिए प्रशिक्षण लिया। अंडर-19 स्तर पर अपने पहले टूर्नामेंट में ही उन्होंने शीर्ष स्थान प्राप्त किया। उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए हॉकी के 100 से अधिक अंतरराष्ट्रीय मैचों में हिस्सा लिया है।

दमदार गोलकीपिंग की बदौलत सविता को कहा जाता है टीम इंडिया की ग्रेट वॉल : भारतीय टीम की ‘दीवार’ गोलकीपर सविता पूनिया हरियाणा के सिरसा जिले की रहने वाली हैं। उनके दादा रणजीत सिंह चाहते थे कि सविता हॉकी खिलाड़ी बने। पिता महेंद्र सिंह पूनिया का कहना है- सविता ने मेरा सीना गर्व से चौड़ा कर दिया, लेकिन उसकी जीत उसके स्वर्गीय दादाजी रणजीत सिंह को समर्पित है। क्योंकि उनकी ये दिली इच्छा थी कि पोतियां खेलों में भाग लेकर देश की सेवा करें।’ हालांकि सविता की जीत का जश्न मनाने के लिए वे अब इस दुनिया में नहीं हैं।
हिसार साई सेंटर में सविता के कोच रहे आजाद सिंह मलिक ने बताया कि लंबे कद और फुर्ती के कारण ही सविता को गोलकीपर चुना गया था। जब सविता 9वीं क्लास में थीं, तब हिसार कोचिंग के लिए आई थीं। यहां पर एक प्रैक्टिस मैच में सविता को गोलकीपर बनाया था। जब उन्होंने उस मैच में सविता का रिएक्शन टाइम देखा तो उनको लगा कि सविता को गोलकीपर के तौर पर ही तराशा जाना चाहिए। उस मैच से लेकर अब तक सविता लगातार अपने खेल में सुधार करती रही हैं।

खेती करते हैं नवनीत कौर के पिता : टीम इंडिया की फॉरवर्ड नवनीत कौर भी हरियाणा के शाहाबाद कस्बे की हैं। उनके पिता बूटा सिंह खेती करते हैं और मां गृहिणी हैं। नवनीत कौर का जन्म 26 जनवरी 1996 को हुआ था। उन्होंने पांचवीं कक्षा में ही हॉकी खेलने की इच्छा जाहिर की। हॉकी कोच बलदेव ने उन्हें ट्रेंड किया। नवनीत कौर ने 2013 में जूनियर वर्ल्ड कप में ब्रॉन्ज मेडल जीता था। इसके बाद 2017 में एशियन कप में गोल्ड मेडल, 2018 में एशियन गेम्स में सिल्वर, 2018 में ही कॉमनवेल्थ गेम्स में चौथा स्थान पाया। 2018 में ही सीनियर वर्ल्ड कप, 2019 में ओलंपिक और 2021 में टोक्यो ओलिंपिक क्वालिफाई किया। नवनीत कौर ने टोक्यो ओलिंपिक में शुक्रवार को आयरलैंड से हुए हाकी मुकाबले में मैच के अंतिम क्वार्टर में गोल करके देश की ओलंपिक में बने रहने की उम्मीदें जगाई। इसके बाद रविवार को ऑस्ट्रेलिया को हराकर टीम सेमीफाइनल में पहुंच गई।

कोच के सपोर्ट की बदौलत आगे बढ़ी दर्जी की बेटी निशा : डिफेंडर निशा वारसी पहली बार ओलंपिक में भाग ले रही हैं। उन्हें यहां तक पहुंचने के लिए कई मुश्किलों से जूझना पड़ा। पिता सोहराब अहमद एक दर्जी थे। वर्ष 2015 में उन्हें लकवा मार गया और उन्हें काम छोड़ना पड़ा। उनकी मां महरून एक फोम बनाने वाली कंपनी में काम किया करती थीं, लेकिन निशा को रेलवे में नौकरी मिलने के बाद उन्होंने काम छोड़ दिया। कई सामाजिक बाधाएं भी थीं, लेकिन कोच सिवाच ने निशा का साथ दिया। उन्होंने उनके माता-पिता को समझाया। उन्हें निशा को अपने सपने पूरा करने देने के लिए मनाया। 2018 में निशा को भारतीय टीम के कैंप के लिए चुना गया, लेकिन घर छोड़ने का फैसला आसान नहीं था। उन्होंने अपना इंटरनेशनल डेब्यू 2019 में हिरोशिमा में एफआईएच फाइनल्स में किया। तब से वह नौ बार भारत का प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं।

बेरोजगार थे मिडफील्डर नेहा गोयल के पिता : हरियाणा के सोनीपत की रहने वालीं भारतीय मिडफील्डर नेहा गोयल के पिता के पास कमाई का साधन नहीं था। एक दोस्त ने सलाह दी कि हॉकी खेलने से अच्छे जूते और कपड़े मिलेंगे। वह छठी कक्षा में थीं, तभी से हॉकी स्टिक थाम ली। जिला स्तर का मुकाबला जीतने के बाद उन्हें दो हजार रुपए का इनाम मिला। बेटी को आगे बढ़ाने के लिए मां सावित्री फैक्ट्री में काम करने लगीं। इसके बाद नेहा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

पिता की मौत के बाद मां ने कठिन परिस्थितियों में निखारा उदिता का भविष्य : हरियाणा के हिसार की रहने वाली की उदिता दुहन के पिता यशवीर सिंह दुहन पुलिस में थे। बीमारी के कारण उनका नवंबर 2015 में निधन हो जाने पर माता गीता देवी ने कठिन परिस्थितियों में उदिता का पालन-पोषण किया था। परिवार के लोग चाहते थे कि अब वे भिवानी के पैतृक गांव नांगल में आकर बस जाएं, लेकिन गीता ने बेटी को शहर में रखा ताकि वह खेल में नाम कमाकर पिता के सपने को पूरा कर सके। पिता के सपने को पूरा करने के लिए ही उदिता ने हॉकी स्टिक थामी थी। इससे पहले उदिता हैंडबॉल की खिलाड़ी थीं। उनके हैंडबॉल कोच कुछ दिन स्कूल नहीं आए तो उदिता ने हॉकी में हाथ आजमाया और तब से इसी खेल की होकर रह गईं। वष्र 2016 में वह जूनियर टीम की कप्तान भी बनीं।

गरीब किसान परिवार की बेटी है शर्मिला : भारतीय महिला टीम की फॉरवर्ड शर्मिला देवी हिसार के कैमरी की रहने वाली हैं। पिता सुरेश कुमार किसान हैं। परिवार की आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण वह आगे नहीं बढ़ पा रही थीं। जब वह चौथी क्लास में थीं तभी कोच प्रवीण सिहाग से मुलाकात हुई। सिहाग ने उनकी हर स्तर पर मदद की और इंटरनेशनल लेवल का खिलाड़ी बनाया।

पिता की मौत पर भी नहीं खोया धैर्य, टीम के साथ बनी रहीं लालरेमसियामी : भारतीय टीम की फॉरवर्ड लालरेमसियामी टीम में जगह बनाने वाली मिजोरम की पहली खिलाड़ी हैं। जून 2019 में जब वह टीम के साथ थीं तभी उनके पिता की मृत्यु हो गई। इसके बावजूद उन्होंने टीम के साथ रहने का फैसला किया और जापान के हिरोशिमा में एफआईएच महिला हॉकी सीरीज में हिस्सा लिया।

हॉकी स्टिक खरीदने की हैसियत नहीं थी, केंदू पौधे से बने स्टिक से खेलती थीं डिफेंडर दीप ग्रेस एक्का : दीप ग्रेस एक्का ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले की रहने वाली हैं। दीप के पिता चा‌र्ल्स एक्का बताते हैं कि बचपन में हॉकी स्टिक खरीदने की हैसियत न होने के कारण वह केंदू पौधे से बने हॉकी स्टिक से खेलती थीं। परिवार में तीन बेटे और दो बेटियां हैं। गांव में आज भी बिजली-पानी की समस्या है। बिजली न होने के कारण उनके माता-पिता इस ओलंपिक में अब तक बेटी को खेलते हुए नहीं देख पाए हैं।

मोनिका को पहलवान बनाना चाहते थे पिता : सोनीपत जिले के गामड़ी गांव की मोनिका मलिक को बचपन से ही पिता तकदीर सिंह ने खेलों के लिए प्रोत्साहित किया था। मोनिका ने 8वीं कक्षा के दौरान ही हॉकी खेलना शुरू कर दिया था। हालांकि उनके पिता उन्हें पहलवान बनाना चाहते थे। बेटी की हॉकी में रुचि देखकर उन्होंने फिर अपना मन बदल लिया। मोनिका अब टीम की स्टार मिडफील्डर हैं।

अपनी आय के सीमित साधनों के बावजूद पिता ने हमेशा रीना को किया प्रोत्साहित : भारतीय टीम की डिफेंडर रीना खोखर मोहाली जिले के नयागांव की रहने वाली हैं। रीना के पिता बीएसएफ से रिटायर्ड है। अपनी आय के सीमित साधनों के बावजूद उन्होंने हमेशा रीना को खेल में आगे बढ़ने के लिए मोटिवेट किया। वर्ष 2019 में जिम सेशन के दौरान हुई एक दुर्घटना के कारण रीना का करियर खत्म होने की कगार पर पहुंच गया था। उन्हें बाईं आंख पर चोट लगी थी और नजर कमजोर होने का डर था। लेकिन, रीना ने जोरदार वापसी की और अब अपने मजबूत खेल से भारत को मेडल के करीब पहुंचा दिया है। इन सब बेटियों की संघर्ष गाथा से पता चलता है कि उनकी जीत मात्र एक संयोग नहीं है, बल्कि उनकी लंबी तपस्या का फल है।

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